एक अजीब सी कहानी है,एक लड़का है……अपने माता-पिता का दुलारा है!! बचपन कि दिवार लांघ कर वो जब जवान होता है तब अपने माता पिता के सपनों कि रथ पर सवार होकर निकल पड़ता है अपनी मंजिल कि तरफ़…बहुत खुश है वो. बहुत तेज चलता है पर संभल के चलता है और आपने रास्ते से भटकता नहीं है.
अब मंजिल बहुत करीब दिखती है। दिल में जीत कि फुहार उठतीं है पर अचानक रथ का पहिया टूट जाता है। लड़का जमीन पर गिरता है | उसका सर फुट जाता है उसका एक पैर टूट जाता है। मंजिल सामने है, पर अब वो चल नहीं सकता। रेंग रहा है पर ज्यादा रेंग नहीं सकता, वो चिल्लाता है रोता है पर कुछ कर नहीं पाता है। वो खुद के ठीक होने का अब इँतजार भी नहीं कर सकता। क्योंकि जिस रथ पर वो सवार था उसे बनाने के लिये उसके माता-पिता अपनी सारी कमाई खर्च कर चुके थे, सारे जमीने बेच चुके थे।
अब लड़के को मंजिल दुर होता प्रतीत होता है। दूर होते होते मंजिल गायब हो जाता है। लड़के को अपने माता पिता कि बाते याद आती है कि……
''अब लौटना तो जीत कर लौटना,अपनी मंजिल को पा कर लौटना।''
इतने में मुझे कुछ आहट सी होती है, मेरी नींद खुलती है. मैं शायद सपनों मे खोया था , पर आँख खुलने तक मै बहुत रोया था। पर रोया क्योँ ? क्या उस लड़के को मैं पहचानता था मै ? कौन था वो कहीं मै ही तो नही था या आपमे से कोइ एक था. मर चुका है मेरे सपनों मे वो पर अभी भी उसे ढूँढ रहा हूँ मै.…………………।
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