Sunday 6 May 2012

"उम्‍मीद का दीया"

हम कितने भ्रष्ट हो सकते हैं. या यूं कहें कि भ्रष्टाचार के कितने किस्सों और कहानियों को सुने और भ्रष्टाचार की नित नई परिभाषा को जानने के बाद हम कब तक अपने आप को चौंकाने का दम रखते हैं. हम-यानी, भारतवर्ष की आम जनता. हमारे जीवन में भ्रष्टाचार की इतनी ज्यादा अहमियत या जगह, क्यों है? सुबह से लेकर शाम तक, हमारे हर काम में जो हमारे घर की परिधि से बाहर हो, उसमें किसी ना किसी रुप में भ्रष्टाचार हमारे चारो ओर क्यों होता है, क्यों हमें इससे निरंतर जूझना पड़ता है. क्या थके नहीं हैं, हम अबतक इस शब्द -भ्रष्टाचार, से?
                                              हर दिन किसी ना किसी नेता, अफसर, राजनीतिक कार्यकर्ता, बिजनेसमैन, सीईओ, शरीके बड़े आदमी की करनी और उससे होने वाले करोड़ों, अरबों के राष्ट्रीय नुकसान की बात पिछले 63 सालों से देखते या सुनते आये हैं. अब तो आदत होने लगी है. अगर टीवी या अखबार में किसी के घूस लेने या देने की बात ना दिखें, तो अटपटा लगता है- खलने लगता है. लगता है कि आज तो देश में कुछ हुआ ही नहीं. महसूस होता है, जैसे सरकार और सरकारी तंत्र काम ही नहीं कर रहा. ...भई बिना लेन-देन के हम कहां आगे बढ़ते हैं.
                                         वक्त अब हम सबों से ये सवाल करने लगा है कि आखिर कब तक हम अपने समाज, अपने देश, अपनी जमीन से गद्दारी करते रहेंगे? भ्रष्टाचार नामक इस दीमक से हमें कब छुटकारा मिलेगा? एक आम भारतवासी कब अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर, देशहित की बात सोचेगा? हर बार ये कहा जाता है कि भ्रष्टाचार वो कीड़ा है, जिसपर रोक-थाम लगाने की जिम्मेदारी ऊपर से शुरु होता है. लेकिन अब इस परिभाषा को बदलने की जरुरत है. इस कीड़े को हर भारतवासी को अपने स्तर पर ही मारना होगा. ये लड़ाई हम सबों की है, ना कि सिर्फ कुछ लोगों की. अगर मुन्नाभाई फिल्म में संजय दत्त भ्रष्टाचार का मुकाबला गुलाब के साथ कर सकते हैं, तो क्या हमारे बगीचों में गुलाब की कमी हो गयी है?