Saturday 27 November 2010

Ek Pagli Ladki Ke Bin.......Kumar Vishwas ki Kalam se

अमावस की काली रातों में दिल का दरवाजा खुलता है,
जब दर्द की प्याली रातों में गम आंसू के संग होते हैं,

जब पिछवाडे के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,
जब घडियां टिक -टिक चलती हैं, सब सोते हैं, हम रोते हैं,
जब बार बार दोहराने से साड़ी यादें चुक जाती हैं,
जब उंच -नीच समझाने में माथे की नस दुख जाती हैं,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है .

जब पोथे खली होते हैं , जब हर सवाली होते हैं ,
जब ग़ज़लें रास नहीं आती , अफसाने गाली होते हैं .
जब बासी फीकी धुप समेटें दिन जल्दी ढल जाता है ,
जब सूरज का लास्खर छत से गलियों में देर से जाता है ,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मनन ही मनन घुट जाती है ,
जब कॉलेज से घर लाने वाली पहली बस छुट जाती है ,
जब बेमन से खाना खाने पर माँ गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मना करने पर भी पारो पढने आ जाती है,
जब अपना मनचाहा हर काम कोई लाचारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है ,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भरी लगता है.

जब कमरे में सन्नाटे की आवाज सुने देती है ,
जब दर्पण में आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,
जब बडकी भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो ,
क्या लिखते हो लल्ला दिनभर, कुछ सपनों का भी सम्मान करो,
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं ,
जब बाबा हमें बुलाते हैं, हम जाते हैं, घबराते हैं,
जब साड़ी पहने एक लड़की का एक फोटो लाया जाता है ,
जब भाभी हमें मानती हैं, फोटो दिखलाया जाता है,
जब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है ,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भरी लगता है.

दीदी कहती हैं उस पगली लड़की की कुछ औकात नहीं,
उसके दिल में भइया तेरे जैसे प्यारे जस्बात नहीं ,
वोह पगली लड़की मेरे लिए नौ दिन भूकी रहती है,
चुप -चुप सारे व्रत करती है, पर मुझसे कभी न कहती है,
जो पगली लड़की कहती है, मैं प्यार तुम्ही से करती हूँ,
लेकिन में हूँ मजबूर बहुत, अम्मा -बाबा से डरती हूँ,
उस पगली लड़की पर अपना कुछ अधिकार नहीं बाबा,
यह कथा -कहानी किस्से हैं, कुछ भी तो सार नहीं बाबा,
बस उस पगली लड़की के संग जीना फुलवारी लगता है,
और उस पगली लड़की के भी मरना भी भरी लगता है

Monday 20 September 2010

दो आलसी!!!

किसी समय एक राज्य में बहुत सारे आलसी लोग हो गए। उन्होंने सारा काम-धाम करना छोड़ दिया। वे अपने लिए खाना भी नहीं बनाते थे। एक दिन सभी आलसियों ने राजा से जाकर कहा कि राजा को आलसियों के लिए एक आश्रम बनवाना चाहिए और उनके खाने की व्यवस्था करनी चाहिए।
राजा यह देखकर परेशान हो गया। कुछ सोचकर उसने अपने मंत्री को आलसियों के लिए एक बड़ा आश्रम बनाने का आदेश दिया। आश्रम के तैयार हो जाने पर सभी आलसी वहां जाकर सोने और खाने लगे।
एक दिन राजा ने अपने मंत्री को आलसियों के आश्रम में आग लगाने को कहा। आश्रम को जलता देखकर सभी आलसी तुरत-फुरत वहां से बच निकलने के लिए भाग लिए।
जलते हुए आश्रम के भीतर अभी भी दो आलसी सो रहे थे। पहले आलसी को पीठ पर आग की गरमी लगने लगी। उसने अपने आलसी दोस्त को यह बताया। “दूसरी करवट पर लेट जाओ” – दूसरे आलसी ने पहले को सुझाव दिया।
यह देखकर राजा ने अपने मंत्री से कहा – “केवल यही दोनों व्यक्ति ही सच्चे आलसी हैं। इन्हें भरपूर सोने और खाने दिया जाए”।

Saturday 15 May 2010

मैं ग़रीब ही भला!


लगता है कि अब इस देश के बाशिंदों को ग़रीब बने रहने में ही भलाई है. जिधर देखो उधर ग़रीबों के लिए योजनाएँ. फलां योजना ग़रीबों के लिए ढिकां योजना ग़रीबों के लिए. सरकारी तो सरकारी, गैर सरकारी और एनजीओ सभी ग़रीबों के पीछे अपनी योजनाएं लेकर पिले पड़े रहते हैं. आप कोई योजना अमीरों के लिए, यदि कोई हो तो बता दो. अब ये बात जुदा है कि ग़रीबों की योजनाओं से भला अंततः अमीरों का ही होता है. मगर, फिर योजना भी तो कोई चीज होती है या नहीं. कोई भी योजना उठाकर देख लो. सरकार ग़रीबों को ग़रीब ही बने रहने देना चाहती है. ऊपर से ग़रीबों के लिए चुनावी साल तो बहुत ही बेकार साल होता है. वो ग़रीबों को और ज्यादा ग़रीब बनाने की फिराक में रहती है
कुछ समय पहले विशिष्ट पहचान पत्र यानी आधार कार्ड बनाने की कवायद की गई थी. इसके बारे में कहा गया था कि इसमें इतनी ताकत होगी कि यह अमीरों और ग़रीबों के बीच की खाई को पाट देगा. हम ग़रीबों के तो हाथ पाँव फूल गए थे उस समय. यदि हम ग़रीबों और अमीरों में कोई अंतर नहीं रहेगा, तो हमारी पूछ परख कौन करेगा? हमारे लिए योजनाएँ कैसे आएंगी? हमारे लिए योजनाएँ कौन बनाएगा? और, सबसे बड़ी बात, सरकार चुनावी साल में आखिर करेगी क्या और कौन सी योजना लाकर वो चुनाव जीतने के अपने मंसूबे पूरा करेगी? पर, शुक्र है, आधार कार्ड की मंशा पूरी होती दिखाई नहीं दे रही, उसका खुद का आधार खिसकता जा रहा है और हम ग़रीबों को अभी थोड़ी राहत है


ऐ मेरे प्यार.......

पता नहीं कौन हो तुम मेरी 
किस जन्म का है ये बन्धन 
क्यों मिलती हो मुझसे 
क्यों फिर चली जाती हो 
क्यों मुझे सिर्फ़ तुम 
सिर्फ़ तुम याद आती हो.. 
मैं तुम्हारे दीवानों में 
एक अदना सा दीवाना हूँ........ 

चाँद जैसा आवारा नहीं 
जो रातों मैं तुम्हरे घर 
के चक्कर लगाऊ, 
पवन जैसा बेशरम भी नहीं 
जो तुम्हरे तन को स्पर्श करता 
हुआ चला जाऊं, 
समंदर भी नहीं, जिससे करती 
होगी तुम बातें, 
उन सितारों मैं से कोई भी 
सितारा नहीं 
जिन्हें गिनती होगी तुम 
सारी सारी रातें, 
वो फूल नहीं, जिसकी पेंखुरी 
तोड़ तोड़ कर गिराती होगी तुम, 
जब कभी मेरे बारे मैं सोंचते हुए 
अपने घर के चक्कर लगाती होगी तुम, 
मुझसे कहीं अच्छा है तुम्हारा 
वो दुपट्टा जो छोड़ता न होगा तुम्हे , 
चाहे करती होगी कितने यतन 
और वो तुम्हरे हाथों के कंगन 
तुम्हे स्वप्न से उठाते होंगे 
जब कभी सोते हुए तुम्हारे 
हाथ आपस मैं लड़ जाते होंगे 
वो दर्पण तुम्हे रोज़ ही देखता होगा 
जब करती होगी तुम श्रृंगार 
पर मैं तुम्हे शायद ही देख पाऊँ इस 
जीवन मैं ऐ मेरे प्यार........ 

धरती भी कभी आसमा से मिल नहीं पाती 
पर क्षितिज इन दोनों को मिलाता है, 
समंदर भी दो किनारों को पास लाता है 
अब देखना है की वो मेरा इश्वर 
मुझे तुमसे मिलवाता है 
या यूँ ही एक गरीब को विरह 
की आग मैं जलाता है... ।

Monday 1 March 2010

मजबूर


क्यों ज़िन्दगी की राह में मजबूर हो गए,
इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए...

ऐसा नहीं कि हमको कोई भी खुशी नहीं,
लेकिन ये ज़िन्दगी तो कोई ज़िन्दगी नहीं,
क्यों इसके फ़ैसले हमें मंज़ूर हो गए.
इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए...

पाया तुम्हें तो हमको लगा तुमको खो दिया,
हम दिल पे रोए और ये दिल हम पे रो दिया,
पलकों से ख़्वाब क्यों गिरे क्यों चूर हो गए.
इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए...