Friday 5 February 2016

जिंदगी का एक पन्ना और "मेरी पसंद"

"दे दो..
भगवान के नाम मे कुछ दे दो,  
भगवान आपका भला करेगा  
ओर ‘चाय-चाय…गरम चाय’ के शोर से मेरी नींद टूटी, बगल में बैठे सज्जन बोले ‘भाई साब आप तो गहरी नींद में सो गए थे’, 
मैं भी मुसुकुराते हुए जंभाई लेता हुआ खड़ा हुआ..!!
"जी हाँ", अंदाज़ा लगा चुके होंगे आप सब कि मैं एक रेलगाड़ी पर था। 2015 के अगस्त महीना मे मुझे  परीक्षा के लिये पटना से मम्बई से कटक जाना पड़ा.. नाशिक कुम्भ मेला ओर परीक्षार्थी के कारण टिकट की मारा मारी में मुझे अपने गंतव्य स्थान के लिये आर•ए•सी का ही टिकट मिल सका। सुबह के 10 बजे रहे थे,ट्रेन नागपुर मे पहुची ही थी,आगे के सफर को पुरा करने के लिए मैंने एक मैगज़ीन ख़रीदी और  धुप का मज़ा लेते हुये चाय की चुस्कियाँ के साथ उसे पढ़ने लगा।
भारत में एक दो रुपये का अखबार आपका परिचय रेल की आधी बोगी से करा देता है। फिर मैंने तो पत्रिका खरीदी थी, अगले ही पल एक सज्जन पास आये और बोले...
‘भाई साब, क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?’
मैंने हामी में सिर हिलाया और वो बैठ गए, थोड़े मिलनसार थे, अगले ही पल मैं जान गया कि वो भी विधार्थी है और मेरी ही तरहा परीक्षा यात्रा पे निकला हुआ था। चूँकि दोनों को कटक ही जाना था तो जान-पहचान जल्दी ही मित्रता में बदल गयी।
जिस सवाल का इंतज़ार मैं कर रहा था वो भी उन्होंने जल्दी ही पूछा...
 ‘भाई आपने पत्रिका पढ़ ली हो तो मैं देख लूँ?’
“10 मिनट पहले लाया हूँ, नहीं दे पाऊंगा, आप अपनी क्यूँ नहीं खरीद लेते? अजीब आदमी हैं” जैसी बातें दिमाग में लाने के बाद जबान से इतना ही निकल पाया
‘जी बिलकुल, ये भी कोई पूछने वाली बात है, आप पढ़िये आराम से’।
इन सज्जन का इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है, ये मेरी थोड़ी गुस्सा मात्र थी, अब मुद्दे पर आता हूँ। उस भिखारी बाबा की आवाज़ से जब मेरी नींद खुली तो मेरी नजरे एक बच्चे को बड़ा सा बैग घसीटते हुए बोगी मे चढ़ते देखा, बैग वही पहियों वाला, बच्चे को देख चेहरे पर हल्की मुस्कान आई ही तभी उसके पीछे कुछ ऐसा दिखा जिसने मेरी हृदयगति रोक दी। काले रंग के पटियाला सूट में एक लड़की के प्रवेश ने दिन के शोरगुल मे सन्नाटा ला कर आग लगा दी थी, चेहरे पर हल्की सी घबराहट पर ओढ़ी हुई मुस्कान, एक हाथ से अपने हैण्ड बैग को संभाल दुसरे से बच्चे को पकड़ने की कोशिश,
क्या यात्री..!!, क्या चाय वाला..!!, क्या भिखारी...!! उस लड़की ने सबको अपनी ओर आर्कषित कर दी थी। इंद्र की सभा की अप्सराओं का जो सबसे बेहतरीन काल्पनिक दृश्य मेरे दिमाग़ में था उससे शायद 100 गुना ज्यादा ख़ूबसूरत। नहीं, मैं शब्दों से संतुष्ट नहीं हूँ, वो और ज्यादा ख़ूबसूरत थी, खुबसुरती भी कैसी, जिसे किसी श्रृंगार की जरुरत ना हो। मैं अकस्मात उसे देखता रहा, लिहाज़ भूल गया कुछ पलों के लिए।
(अरे आप सब ज्यादा सोचना मत लड़को का ये ठरकपन जन्म जात मिला हैं)
कौन है ये? कहाँ से आई है? वो भी अकेली..! ये बच्चा कौन है? इतना बड़ा इसका तो होगा नहीं, भाई होगा शायद, या कोई रिश्तेदार? जैसे तमाम सवालों ने मुझे घेरा ही था कि उस बच्चे की आवाज़ ने सन्नाटा तोड़ा ‘अंकल, क्या हम यहाँ बैठ सकते हैं?’
(अंकल? अबे मैं 22 साल का हूँ? पागल है क्या?...ये बातें सिर्फ मन मे ही उठा..!! )
‘अरे बिलकुल बैठो यार’
(अब आप समझ गए होंगे वो मैगजीन वाले भाई को मैंने ‘सज्जन’ कह क्यूँ संबोधित किया, सही मौके पर वो सीट छोड़ कहीं चले गए थे)
मेरे हामी भरते ही वो दोनों वहां बैठ गए, जब आप अकेला कहीं सफर कर रहे हो और जब आप ये सोच रहे हों कि कैसे वक़्त कटेगा तो ऐसा हसीन हादसा आपको मन ही मन ये सोचने को मजबूर कर देता है कि ‘काश, ये समय यहीं रुक जाता’। मैं असमंजस में था कि कैसे बात करूँ इतने में ही वो बच्चा बोल पड़ा
‘अंकल, मुझे सुसु जाना है, टॉयलेट तक ले चलोगे क्या?’
‘जरुर ले चलूँगा, पर पहले आप मुझे अंकल बोलना बंद करो’
(आम तौर पर मैं ऐसा हूँ नहीं, पर जब दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत लड़की आपके बगल में हो तो भाषा शैली में परिवर्तन लाज़मी है)
‘ठीक है, भैय्या बोलता हूँ फिर’
लड़की भी जरा सा मुस्कुराई, वो होती है ना.. ज़माने से छुपाने वाली मुस्कराहट, जब एक खुबसूरत लड़की इस क्रिया को करती है तो कुछ बात होती है ,क्या होती है..? मुझे भी नही मालूम बस आप कुछ भी समझ लीजिये। 
“और छोटू, अकेले कहाँ जा रहे हो”
“अकेला कहाँ, दीदी हैं ना’
मैंने राहत की सांस ली..ऐसा आप कह सकते हैं, भारत ‘आशावादियों’ का देश है, जिस लड़की से मैंने बात नही की, एक बार देखा है, वो शादीशुदा है इस ख़याल ने कुछ समय तक मुझे विचलित किया था।
खैर टॉयलेट से वापिस आने पर हम फिर अपने बर्थ पर बैठ गए, वो लड़की बर्थ पर पड़ी मेरी मैगजीन पढ़ रही थी। मन में खयाल आया इससे अच्छा तो वो लड़का था, कम से कम पूछा तो था उसने। बहरहाल लड़कियों में जरा सी ऐंठ खूबसूरती और बढ़ा ही देती है, लड़के ये प्रयोग कदापि ना करें।
बहुत देर से ‘चाय-चाय’ चिल्ला रहे लड़के को भी मैंने रोक ही लिया,
भाई चाय पिला दो, आप लोग पियेंगे?
उधर से कोई जवाब नही मिला, हाँ बच्चे ने ‘ना’ में सिर हिला दिया। अब सब्र का बाँध टूट रहा था, मेरी बर्थ पर बैठी..मेरी मैगजीन पढ़ी, इसके भाई को मैं टॉयलेट करा लाया, चाय पूछा, कुछ नहीं तो ना बोल के एक शुक्रिया तो बनता ही था।
‘आपकी दीदी बोलती नहीं क्या?’
(हिम्मत जुटा कर इतना बोल पाया)
ज़वाब बेहद सीधा, सरल और चौंका देने वाला था
(तब लड़की की आवाज आई..)
‘हां, दीदी बोल नही सकती’क्या??
ये हो नही सकता, ऐसा करने से पहले भगवान भी 10 बार सोचेगा....

नज़रें देख तो रही थी पर दिमाग उस बात पर विश्वास करने से इनकार कर रहा था, मुग़ल काल में संगेमरमर की तराशी हुई मूर्ति क्या ही उसकी खुबसूरती के आगे टिकती। दिल बैठ गया था, मगर क्यूँ? क्या रिश्ता था हमारा? मिले हुए आधे घंटे भी तो नहीं हुए थे।
एक ख़ूबसूरत लड़की का सबसे बड़ा गहना होता है उसकी ‘सादगी’, शायद यही उसकी चुम्बकीय व्यक्तित्व का सबसे बड़ा कारण था। वो रेलगाड़ी जो दो मिनट पहले तक दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत जगह लग रही थी वो अचानक बेगानी सी दुनिया मालूम पड़ने लगी। वक़्त ठहर गया था, उसने अपनी पलकें झुकाये रहते हुये मेरे मुरझाये चेहरा को देखी और हल्के से मुस्कुरा दी।
(पता नहीं भगवान ये कला लड़कियो में ही क्यो दी)
शायद वो कुछ कहना चाहती थी लेकिन मुझे सांत्वना की जरुरत नहीं है, मैं भी अपनी मम्मी की दुलारी बेटी हुँ।(क्योंकि मेरी कोई बहन नहीं हैं !!)

कुछ बोल तो नहीं सका पर उसकी तरफ देख हाव भाव के माध्यम से मैनें माफ़ी मांगी, जिसे उसने अपनी दुनिया भुला देने वाली मुस्कराहट से स्वीकार किया। ये वो पल था जब मैं शायद अपने निजी जीवन की सभी समस्याओं को भुला चुका था, गुस्सा आने पर मन की भड़ास शब्दों के माध्यम से निकाल कर हमसब शांत हो जाते हैं। दिमाग में हज़ारों प्रश्न लिए मैं बेबाक उसकी तरफ देखे जा रहा था, शर्म..लिहाज़..मानों कहीं खो गया था, लेकिन मैं ऐसा व्यक्ति  नहीं हुँ जो मैं इस पात्र मे लग रहा हूँ।
तभी ट्रेन के तेज़ हॉर्न ने पुरे बोगी को फिर से जगा दिया, हॉर्न की आवाज़ सुनते ही भाई बहन विचलित हो उठे। समझते देर ना लगी की ये उनकी ही स्टेशन हैं जहॉ उसे उतरनी थी, मैंने बड़े हक़ से उनका सामन उठाया और उस बच्चे के साथ (जिसके कारण कब का 2 घंटा बीत गया पता ही नहीं चला ) गेट की ओर बढ़ने लगा। गाड़ी खड़ी होते ही मैंने फटाफट उनका सामान नीचे  उतरवा दिया ।शायद कुछ 45 सेकण्ड्स रह गए थे मेरे पास, और देखना चाहता था उसे, पर ट्रेन अब दुबारा हॉर्न दे रही थी, धड़कने तेज़ हो गयी थी जो गाड़ी के एक इंच खिसकते ही और तेज़ हो गयी।
वाह जिंदगी और उसका रोमांच, जिसको मैं जानता नहीं था उसकी जाते देख मेरे चेहरे का रंग उड़ चुका होता .. ये शायद जिंदगी के सबसे रोमांचक दो घंटे थे। बच्चा बैग घसीटता हुआ ट्रेन से दुर जा रहा था, तभी जोर से एक आवाज़ आई ‘थैंक्यु जी'
ना, मैं प्रयत्न भी नहीं करूँगा, उस पल मेरी जो मानसिक हालत थी उसे शायद शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। जी, आप ठीक समझे ये बच्चे की नहीं, उस लड़की की आवाज़ थी।
भागूं, ट्रेन से नीचे जाऊं, जोर से चिल्लाऊं, क्या करूँ? उसके ‘थैंक्यु जी’ का जवाब मैं उसी के अंदाज़ में अपनी मुस्कराहट से दे पाया। हम दोनों शायद 15 सेकंड तक एक दुसरे को देख मुस्कुराते रहे और गाड़ी स्टेशन से आगे निकल गयी। उस दिन ये समझ आया कि ‘जज्बात’ से बड़ी भाषा कोई नहीं होती, उन 15 सेकंड में बिना बोले मैंने वो हर बाद कही जो मैं पिछले 2 घंटे से कहना चाहता था, और शायद उसने समझी भी।

‘अरे ये क्या ' ..!! उसी समय मेरी मोबाईल की रिंग भी बजने लगी थी  |
इस फोनवाली को कैसे मालुम चला की मेरा ध्यान कहीं ओर है , इसकी प्यारी आवाज़ से मेरा ध्यान उस बच्चे से एकदम हट गया लगा कुछ हुआ ही नहीं था.. 
मेरी पसंद तो फोनवाली ही हैं शायद फोनवाली को नहीं मालुम हैं !!  मैं अब भी फोनवाली को बहुत याद करता हुँ....!! 
जिंदगी का एक पन्ना आपके समक्ष रखा हुँ..!!

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