Saturday 16 June 2012

मेरे पापा आप हो सबसे ख़ास !!!

पापा कभी पसंद नहीं पूछते फिर भी हर पसंद की
चीज़ बिन कहे ही ला देते हैं ,जाने कैसे।
बात करना उन्हें पसंद नहीं चुप ही रहते हैं अक्सर
मन की सारी बातें फिर भी जान जाते हैं मन से
बिन कहे सब कह जाते हैं,जाने कैसे।
पापा कुछ सख्त सी दूरियाँ रखते हैं हमारे साथ

पर किसी और की सख्ती मंज़ूर नहीं उन्हें
अपने इस प्रेम को सख्ती से छुपाते हैं,जाने कैसे।
फर्क नहीं उन्हें हम दूर हों या पास या कि किसके साथ
जबकि फर्क है उन्हें हम कहाँ हैं और हैं किसके साथ
कहते नहीं जताते भी नहीं छुपाते हैं जज़्बात,जाने कैसे।
उठ कर चले जाते हैं जब भी कोई बात होती है भावुक सी
कह देते हैं फ़ालतू बातें करते हो तुम सभी
अपनी भावनाओं को कभी बहने नहीं देते ,जाने कैसे।
पापा का जीवन हूँ मै और मेरा सब कुछ वो
न कभी कहते हैं खुद, न कभी मुझे कहने देते हैं
जब भी कहना चाहूँ बात बदल दते हैं ,जाने कैसे।
पर आज कहतेहैं , न रोक सकेंगे आप मेरी आवाज़
मेरे जज़्बात, मेरे पापा आप हो सबसे ख़ास !!!

Sunday 6 May 2012

"उम्‍मीद का दीया"

हम कितने भ्रष्ट हो सकते हैं. या यूं कहें कि भ्रष्टाचार के कितने किस्सों और कहानियों को सुने और भ्रष्टाचार की नित नई परिभाषा को जानने के बाद हम कब तक अपने आप को चौंकाने का दम रखते हैं. हम-यानी, भारतवर्ष की आम जनता. हमारे जीवन में भ्रष्टाचार की इतनी ज्यादा अहमियत या जगह, क्यों है? सुबह से लेकर शाम तक, हमारे हर काम में जो हमारे घर की परिधि से बाहर हो, उसमें किसी ना किसी रुप में भ्रष्टाचार हमारे चारो ओर क्यों होता है, क्यों हमें इससे निरंतर जूझना पड़ता है. क्या थके नहीं हैं, हम अबतक इस शब्द -भ्रष्टाचार, से?
                                              हर दिन किसी ना किसी नेता, अफसर, राजनीतिक कार्यकर्ता, बिजनेसमैन, सीईओ, शरीके बड़े आदमी की करनी और उससे होने वाले करोड़ों, अरबों के राष्ट्रीय नुकसान की बात पिछले 63 सालों से देखते या सुनते आये हैं. अब तो आदत होने लगी है. अगर टीवी या अखबार में किसी के घूस लेने या देने की बात ना दिखें, तो अटपटा लगता है- खलने लगता है. लगता है कि आज तो देश में कुछ हुआ ही नहीं. महसूस होता है, जैसे सरकार और सरकारी तंत्र काम ही नहीं कर रहा. ...भई बिना लेन-देन के हम कहां आगे बढ़ते हैं.
                                         वक्त अब हम सबों से ये सवाल करने लगा है कि आखिर कब तक हम अपने समाज, अपने देश, अपनी जमीन से गद्दारी करते रहेंगे? भ्रष्टाचार नामक इस दीमक से हमें कब छुटकारा मिलेगा? एक आम भारतवासी कब अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर, देशहित की बात सोचेगा? हर बार ये कहा जाता है कि भ्रष्टाचार वो कीड़ा है, जिसपर रोक-थाम लगाने की जिम्मेदारी ऊपर से शुरु होता है. लेकिन अब इस परिभाषा को बदलने की जरुरत है. इस कीड़े को हर भारतवासी को अपने स्तर पर ही मारना होगा. ये लड़ाई हम सबों की है, ना कि सिर्फ कुछ लोगों की. अगर मुन्नाभाई फिल्म में संजय दत्त भ्रष्टाचार का मुकाबला गुलाब के साथ कर सकते हैं, तो क्या हमारे बगीचों में गुलाब की कमी हो गयी है?

Thursday 12 April 2012

हाय पटना! हाय पटना! हाय पटना!……

                                                   फोटो--google

किस्सों में पढ़ा था कहीं
था सुनहरा एक जगह अपना
जब सारी दुनिया सो रही थी
तब जगा हुआ था पटना।

शून्य कोई खोज रहा था
शान्ति कोई ला रहा था
शिक्षा कोई दे रहा था
शिक्षित कोई हो रहा था।

आंदोलनों की शुरुआत हुई है
साम्प्रदायिकता की हार हुई है
जंगों के बाद राजाओं की
अंतरात्मा से तकरार हुई है।

जीवन का चक्र है शायद
या घटी है कोई दुर्घटना।
जब सारी दुनिया जाग चुकी
अब सो रहा है पटना।

पहले था पाटलीपुत्र,
फिर हुआ पटना
पत्तन तो रहा नहीं
घटने लगी घटना ।

हाय पटना! हाय पटना! हाय पटना!


Friday 9 March 2012

मैं नारी




मैं नारी सदियों से
स्व अस्तित्व की खोज में
फिरती हूँ मारी-मारी
कोई न मुझको माने जन
सब ने समझा व्यक्तिगत धन
जनक के घर में कन्या धन
दान दे मुझको किया अर्पण
जब जन्मी मुझको समझा कर्ज़
दानी बन अपना निभाया फर्ज़
साथ में कुछ उपहार दिए
अपने सब कर्ज़ उतार दिए
सौंप दिया किसी को जीवन
कन्या से बन गई पत्नी धन
समझा जहां पैरों की दासी
अवांछित ज्यों कोई खाना बासी
जब चाहा मुझको अपनाया
मन न माना तो ठुकराया
मेरी चाहत को भुला दिया
कांटों की सेज़ पे सुला दिया
मार दी मेरी हर चाहत
हर क्षण ही होती रही आहत
माँ बनकर जब मैनें जाना
थोडा तो खुद को पहिचाना
फिर भी बन गई मैं मातृ धन
नहीं रहा कोई खुद का जीवन
चलती रही पर पथ अनजाना
बस गुमनामी में खो जाना
कभी आई थी सीता बनकर
पछताई मृगेच्छा कर कर
लांघी क्या इक सीमा मैने
हर युग में मिले मुझको ताने
राधा बनकर मैं ही रोई
भटकी वन वन खोई खोई
कभी पांचाली बनकर रोई
पतियों ने मर्यादा खोई
दांव पे मुझको लगा दिया
अपना छोटापन दिखा दिया
मैं रोती रही चिल्लाती रही
पतिव्रता स्वयं को बताती रही
भरी सभा में बैठे पांच पति
की गई मेरी ऐसी दुर्गति
नहीं किसी का पुरुषत्व जागा
बस मुझ पर ही कलंक लागा
फिर बन आई झांसी रानी
नारी से बन गई मर्दानी
अब गीत मेरे सब गाते हैं
किस्से लिख-लिख के सुनाते हैं
मैने तो उठा लिया बीडा
पर नहीं दिखी मेरी पीडा
न देखा मैनें स्व यौवन
विधवापन में खोया बचपन
न माँ बनी मै माँ बनकर
सोई कांटों की सेज़ जाकर
हर युग ने मुझको तरसाया
भावना ने मुझे मेरी बहकाया
कभी कटु कभी मैं बेचारी
हर युग में मै भटकी नारी

Tuesday 6 March 2012

ये खाली पन्ने


में नहीं जानता कि, में क्यों लिखता हूँ,
बस, ये खाली पन्ने यूँ देखे नहीं जाते,
इनसे ही अपना अकेलापन बाट लेता हूँ..

मेरे ख़यालो का आइना हैं ये,
मेरी अनकही बातें, मेरे अनसुने जज़्बात हैं ये..
इन पर जो स्याही है,
मेरे सपनो, मेरे छुपे आंसू, मेरे दर्द, मेरे प्यार कि हैं..

इन पर में पूरी तरह आज़ाद हूँ,
इन पर न कोई रोक है, न कोई टोक..

कभी भर देता हूँ इन्हे, दिए कि लौ से,
कभी बारिश कि बूंदो से,
कभी बचपन कि यादों से,
कभी उस हसींन कि तारीफों से..

ये पन्ने कुछ जवाब नहीं देते,
बस सुन लेते हैं मेरी बात,
क़ैद कर लेते हैं खुद में,
"मेरी दुनिया, मेरे जज़्बात"

किसी से कहते नहीं, किसी को बताते नहीं,
बस सम्भाल कर रखते हैं मेरी अमानत को,
मेरी कहानियों को, मेरी रवानियों को,
मेरी बातों को..

ये सही-गलत का भेद नहीं करते,
न अच्छे का, न बुरे का
इन पर न कुछ झूठ है, न सच..

कुछ यादें लेकर बिखर चुके हैं ये,
कुछ यादें अब भी संजोये हैं,
कुछ कहानिया और बाकी हैं मेरी,
जो इनमे मिल जाएँगी, और यादें बन जाएँगी..

कुछ किस्से और बाकी हैं मेरे,
जो मेरे जाने के बाद भी रहेंगे,
जो कभी खो जायेंगे, कभी मिल जायेंगे,
किसी को, कभी मेरी याद दिलाएंगे..

के था एक नादान लिखने वाला,
जो दुनियांदारी छोड़ कर,
इन पन्नों के प्यार में पढ़ गया..

इन्ही पन्नो में उसकी हमसफ़र कि बातें थी,
इन्ही पन्नो में उसके यारो के क़िस्से,
इन्ही पन्नो में वो आज़ाद रहा,
इन्ही पन्नो में वो क़ैद,
इन्ही पन्नो पर रोशन हुआ,
और फिर इन्ही पन्नो में डूब गया..

Sunday 4 March 2012

क्या हम सब ढ़ोंगी हैं ?


आजकल इस सोशियल मीडीया के दौर मे एक आम सहमति बनाना बहुत मुश्किल है. सभी की आपनी एक सोच है और होनी भी चाहिए. शायद यही एक लोकतांत्रिक देश मे रहने का फ़ायदा है, जिससे आज भी दुनिया के कई मुल्क बहुत दूर है.

YouTube के काफ़ी प्रचलित हो जाने के कारण से आज देश का हर दूसरा लड़का रात-तो-रात वाइरल होना चाहता है. सोशियल एक्सपेरिमेंट्स और सवाल जबाब संबंधित वीडियोस की झड़ी लग चुकी है.

सभी के आपने अलग इश्यूस है. कोई भारतीय संस्कृति से परेशन है, कोई महिलाओ के हित के लिए लड़ रहा है और कोई चाहता है की भारत युरोप एवं अमेरिका जैसी ओपन सोसाइटी बन जाए. ठीक है में ऐसा नही कह रहा की एक ओपन सोसाइटी होना ग़लत है पर असली सवाल तो यह है की क्या हम खुद तय्यार है? क्या हम उन सभी मापदंडो पर खरे उतर सकेंगे?

भारतीय YouTube चॅनेल्स पर पूछे गए कुछ सवाल और उनके दिया गये जवाब(बहुमत). साथ मे मेरी आपनी निजी राय और कुछ सवाल.

सवाल: क्या भारत मे वैश्यावृति को क़ानूनी तौर पर मंज़ूरी दे देनी चाहिए?

बहुमत: हां.. वैश्यावृति को क़ानूनी तौर पर मंज़ूरी देने से बलात्कार जैसे अपराधो मे कमी आएगी. जो भी डेस्परेट लोग है वो बलात्कार करने के बजाए वैश्याओ के पास जा कर अपनी हवस बुझा लेंगे. वैश्यावृति भी एक प्रोफेशन है, जैसे सभी को पैसे कमाने का हक़ है वैसे ही उनको भी पूरा हक़ है. ये वैसे भी हो ही रहा है, तो क्यू ना क़ानूनी तौर पर हो. I think its kind of progressive to have this in India since our country is developing.

मेरी राय: इसमे दो मत नहीं की सेक्स संबंधी अपराधो को रोकना हमारी प्राथमिकता है, पर क्या वैश्यावृति ही एक साधन है. To be a prostitute is nobodies childhood dream, circumstances make them. क्या किसी को आपने वैश्या होने पर गर्व हो सकता है? मेरे ख़याल से तो नही. बलात्कार वहाँ भी हो रहे है जहाँ वैश्यावृति की मंज़ूरी है. मेरी समझ मे इन अपराधो को रोकने का एक ही तरीका है और वो है क़ानून व्यवस्था को दुरुस्त करना.

मेरा सवाल: चलो एक बार हम मान लेते है की इसे मंज़ूरी मिल जाती है. तो क्या अगर कभी आपका छोटा भाई या बेटा (बालिग) डेस्परेट हो गया तो क्या आप उसे एक वैश्या के पास जाने की इजाज़त दे देंगे. अगर आप को कहीं से यह पता लगा की आप का भाई या फिर बेटा अपनी संतुष्टि और डेस्परेशन कम करने के लिए ऐसा करता है तो क्या आप उसे तुरंत माफ़ कर देंगे? हर बलात्कारी किसी का भाई और किसी का बेटा होता है.

Monday 9 January 2012

भारतीय युवा

भारत की कुल आबादी  में  युवाओं की हिस्सेदारी करीब 50 प्रतिशत है जो कि विश्व के अन्य देशों के मुकाबले काफी है। इस युवा शक्ति का सम्पूर्ण दोहन सुनिश्चित करने की चुनौती इस समय सबसे बड़ी है। जब तक यह ऊर्जा और आन्दोलन सकारात्मक रूप में है तब तक तो ठीक है, पर ज्यों ही इसका नकारात्मक रूप में इस्तेमाल होने लगता है वह विध्वंसात्मक बन जाती है। ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर किन कारणों से युवा ऊर्जा का सकारात्मक इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है ? वस्तुत: इसके पीछे जहाँ एक ओर अपनी संस्कृति और जीवन मूल्यों से दूर हटना है, वहीं दूसरी तरफ हमारी शिक्षा व्यवस्था का भी दोष है। इन सब के बीच आज का युवा अपने को असुरक्षित महसूस करता है, फलस्वरूप वह शार्टकट तरीकों से लम्बी दूरी की दौड़ लगाना चाहता है। जीवन के सारे मूल्यों के ऊपर उसेअर्थभारी नजर आता है। इसके अलावा समाज में नायकों के बदलते प्रतिमान ने भी युवाओं के भटकाव में कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिल्मी परदे और अपराध की दुनिया  के नायकों की भाँति वह रातों-रात  उस शोहरत और मंजिल को पा लेना चाहता है, जो सिर्फ एक मृगतृष्णा है। युवा शब्द अपने आप में ही ऊर्जा और आन्दोलन का प्रतीक है। युवा को किसी राष्ट्र की  नींव तो नहीं कहा जा सकता पर यह वह दीवार अवश्य है जिस पर राष्ट्र की भावी छतों को सम्हालने का दायित्व है। वे किसी भी समाज और राष्ट्र के कर्णधार हैं, वे उसके भावी निर्माता हैं। चाहे वह नेता या शासक के रूप में हों, चाहे डाक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक, साहित्यकार व कलाकार के रूप में हों। इन सभी रूपों में उनके ऊपर अपनी सभ्यता, संस्कृति, कला एवम् ज्ञान की परम्पराओं को मानवीय संवेदनाओं के साथ आगे ले जाने का गहरा दायित्व होता है। पर इसके विपरीत अगर वही युवा वर्ग उन परम्परागत विरासतों का वाहक बनने से इन्कार कर दे तो निश्चितत: किसी भी राष्ट्र का भविष्य खतरे में पड़ सकता है