Thursday 14 July 2016

हरवक्त मदद करो....डरो मत.!!


किसी दिन रास्ते से गुज़रते हुए सड़क पर कोई इंसान लाचार अवस्था में खून से लथपथ पड़ा हो, और हम उसके बगल से सिर्फ ये सोचकर गुज़र जाएँ कि कोई और मदद कर देगा, या मुझे इस पछड़े में नही पड़ना, या मेरे पास अभी वक़्त नही, और कुछ देर बाद आपके पास फ़ोन आये कि उसी सड़क पर उसी जगह आपके किसी अपने ने दुर्घटना में दम तोड़ दिया, क्योंकि हॉस्पिटल पहुँचाने में देरी हो गयी, या इलाज़ वक़्त पर नही मिला.
आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उस वक़्त आप पर क्या बीतेगी, आपका कलेजा किस तरह फट कर बाहर आ जायेगा कि जिस घायल से किनारा करके आप अभी गुज़र गए थे वो आपका ही पिता,भाई,बहन,माँ,चाचा,बेटा था। आप मौत से बदतर ज़िन्दगी जिएंगे, और हर रोज़ पछतावे के हज़ार कड़वे घूंठ पिएंगे कि काश रुक गए होते,मदद कर दी होती, हॉस्पिटल पहुंचा दिया होता या एम्बुलैंस को एक फोन ही कर दिया होता। लेकिन फिर ये सिर्फ काश में लिपटे अफ़सोस होंगे, और कुछ नही।
भारत में पिछले 10 साल में 1 मिलियन लोग सड़क दुर्घटना में अपनी साँसें खो चुके, इनमे वो लोग नही है जो अपाहिज की ज़िन्दगी जी रहे हैं। लेकिन फिर भी क्यों भारत में आम आदमी पत्थर दिल होकर सड़क पर किसी को तड़पता छोड़ देता है? क्यों कोई किसी को कन्धा देने को आगे नही आता, जब तक कि उनको मंज़िल शमशान न हो? क्या शमशान पहुँचाने से आसान अस्पताल पहुंचाना नही होता?
दरअसल हमारे देश में घायल की मदद करने वाले शख्स को पुलिस और कानून का जो बर्ताव झेलना पड़ता है वो उसे भी नही झेलना पड़ता जिसने वो दुर्घटना को अंजाम दिया होता है। पुलिस की लंबी और तंग कर देने वाली सवाल जवाब और शक करने की प्रक्रिया, फूहड़ रवैया, अपमानजनक ढंग से बर्ताव, और इससे पहले अस्पताल पहुँचाने पर इलाज़ से पहले अस्पताल प्रशासन की लंबी चौड़ी प्रक्रिया। इन सबमे व्यक्ति को इतनी बुरी तरह से शोषित कर दिया जाता है कि मदद के लिए आगे बढे हाथ पछतावे में तब्दील हो जाते हैं।
इस समस्या के समाधान के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 29 अक्टूबर 2014 को केंद्र को निर्देश दिए थे कि वो तीन महीने के भीतर एक आदेश लाये जिसमे सड़क पर दुर्घटना का शिकार हुए लोगों की मदद करने वालों के खिलाफ पुलिस और अस्पताल के द्वारा किये जाने वाले रवैये पर दिशा निर्देश हों।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि
1.अगर एक व्यक्ति चश्मदीद नही है और वो एक घायल को अस्पताल पहुंचाता है तो उससे कोई सवाल जवाब न किये जाये और उसे तुरंत जाने की अनुमति हो।
2.सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जो व्यक्ति पुलिस और आपातकालीन सेवाओं को किसी घायल के सड़क पर पड़े होने की सूचना देगा उसे अपनी पहचान या निजी जानकारी देने के लिए विवश नही किया जायेगा।
3. सड़क पर घायल पड़े शख्स को अस्पताल लाने वाले व्यक्ति की निजी जानकारियां जैसे नाम और नंबर, उस व्यक्ति की अपनी इच्छा पर लिए जाएँ, यहाँ तक कि अस्पताल द्वारा भरवाये जाने वाले MLC फॉर्म पर भी।
4. यदि किसी मामले में घायल को अस्पताल लाने वाला व्यक्ति खुद अपनी इच्छा से पहल करते हुए बताये कि वो दुर्घटना का चश्मदीद है तो उससे सिर्फ एक बार सवाल जवाब किया जाएगा, 60 दिन के भीतर ये सुनिश्चित किया जाए कि मदद करने वाले को पुलिस या अदालत के द्वारा परेशान न किया जाये। बार बार तलब करने की बजाय गवाह को पहली बार की गयी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये परखा जाए।
5. कोई भी पंजीकृत अस्पताल निजी या सरकारी, घायल को अस्पताल लाने वाले व्यक्ति से पैसों की मांग नही करेगा जब तक वो उसका कोई सागा संबंधी न हो, और घायल को बिना किसी देरी के तुरंत इलाज मुहैया कराया जायेगा।
हर अस्पताल अपने सालाना मुनाफे से कम ऐ कम 2% धन राशि घायलों के मुफ़्त इलाज के लिए नियुक्त करेगा।
6. सड़क दुर्घटना जैसी आपात कालीन वाली स्थिति में यदि कोई भी डॉक्टर जिसके इलाज की मरीज़ को तुरंत आवश्यकता हो यदि देरी करता है तो ये मेडिकल कॉउंसिल ऑफ़ इंडिया 2002, के 7वें अध्याय के "प्रोफेशनल मिस कंडक्ट में माना जायेगा,और अध्याय 8 के तहत उस पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाये।
8. सभी निजी और सरकारी अस्पताल इन दिशा निर्देशों के जारी होने के 60 दिन के भीतर इन्हें लागू करे, वरना इनके पंजीकरण रद्द किये जाएँ।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश को 8 महीने बीत गए, लेकिन इन दिशा निर्देशों का कितना पालन हुआ है इसका जवाब या तो केंद्र सरकार दे सकती है, या अस्पताल या फिर घायलों को अस्पताल लाने वाले राहगीर, और अगर कोई नही तो खुद सड़क पर दम तोड़ते घायल।

No comments:

Post a Comment